Wednesday, August 17, 2011

अस्तित्व का संघर्ष

अभी दिखा एक शख्स,
आँखों में चश्मा और हाथों में छड़ी थी |
लोग कहते हैं कि वो गुमनाम है |
बताता नहीं अपना नाम है |
किसी रोज भूला था नाम, 
अभी तक अनजान है |
किससे पूछे भीड़ में अपना नाम,
उनसे ? जो किसी और के नाम के सहारे हैं !
या उनसे ? जिन्हें नाम से फर्क ही नहीं पड़ा |
अंजान सफ़र में नाम की अहमियत ही क्या है ?
कौन पडतालेगा उसके निशान,
शायद मुनिस्पलिटी के रजिस्टर में दर्ज होगा, 
कोई जमीन का टुकड़ा उसके नाम |
उस बेनाम की ढाई गज जमीन,
जिसमें दफ्न होना है उसका अस्तित्व !
हाँ वही अस्तित्व ! जिससे समाज बेफिक्र था !
क्यूँ न हो ?
सब जूझ ही रहे हैं,
अपने अस्तित्व के लिए,
औरों के अस्तित्व को रौंदते हुए !   
यही अस्तित्व का संघर्ष जिसमे जीवन उपजा,
समाज बना, जातियां बनी, देश जन्मा !
धरती बटी, रेखाएं खिची, शत्रु पनपा !
राजा बने, सामंत भी , सैनिक, प्रजा !
जो लूटता है घोर वो शासक बना,
जो लुट रहा है खैर उसकी बात भी क्या !
फिर भी उस अस्तित्व में अब क्या बचा ?
जो सिकन्दर नाम था वो भी मिटा !
दौड़ते फिरते है किस कारण ? 
आप, मै, हर शख्स क्यूँ अंजान हैं
नाम वालो को मिले कितने सुकून?
क्यूँ नहीं दिखता शिकन बेनाम में ?   
सोचता हूँ क्या उसे मै नाम दूं ?
या नाम वालो पे तरस खाता रहूँ ?


-----------सुनील मिश्रा------------

Monday, August 1, 2011

पूछो मेरी ख़ामोशी से !

जीवन की पथरीली राहें !
कुछ करीब,
कुछ दूर किनारे !
भटक रहे,
किस खोज में जाने !
कितनी आवाजे दी थी,
पूछो मेरी ख़ामोशी से !

कब आहत,
कब है प्रसन्न मन !
संभला भी है,
बहका मन !
इनको समझाने में,
कितनी आवाज़े दी थी,
पूछो मेरी ख़ामोशी  से !

जब आशाएं,
पतझड़  बन,
व्याकुल करती हैं,
जीवन उपवन !
इनमे उत्साह जगाने को,
कितनी आवाजे दी थी ,
पूछो मेरी ख़ामोशी से !

अस्त हुआ रवि,
विकल हुआ नभ !
तम की छाया में,
गहराए गम के बादल !
इनको दूर भगाने में,
कितनी आवाजे दी थी,
पूछो मेरी ख़ामोशी से !




--------सुनील मिश्रा

मंथन

निन्द्य यज्ञ किया अभी, कि भ्रम से द्वन्द किया अभी
आवाज थी पुरुषार्थ की, अमोघ प्रण किया अभी,

अभी भी निष्ठ है कहीं, वो काल से प्रलब्ध ही,
वो आत्म में छिपी हुई, वो आत्म से अकुल कहीं |
वो सत्य की पुकार थी या तम से ही तकरार थी,
वो छल में आहूत स्वत्व थी या हतोज नरता निरस्त थी,
वो क्षत-विक्षत आस थी या एक नूतन प्यास थी,
 वो मरीचिका से घिरी या शिखर से विचलित मार्ग थी |
वो तलाश थी किसी संग की या सिहरती मन तरंग थी,
वो क्षितिज में व्याप्त  दीप्ति थी, या तम को ही ललकार थी,
अभी भी पग डिगा नहीं वो लक्ष्य से हटा नहीं,
कई थी अडचने मगर वो सत्य पे रुका कहीं |
न कहीं आवेश युद्ध की, लहर रुकी थी सिन्धु की,
ठहर चुके थे ज्वार भी, थे बंद तब कई द्वार भी,
तटस्थ कहीं ज्योति थी, शिथिल थे मन के तार भी,
वही पुकारता कहीं तलाश थी जिस प्रभात की |
असंख्य दर्प मिट गए अव्यक्त भाव व्यक्त थे,
वो मार्ग जो अवरुद्ध थे व्यवस्थ थे प्रशस्त थे,

ये द्वन्द अंतस में कहीं निश-दिन उमड़ते हैं कभी !
इस आत्म के संघर्ष में, आहत हुए विजयी कभी  |

---------------सुनील मिश्रा

Thursday, April 21, 2011

छितराए हुए शेर !

जज्बातों को कभी-कभी अल्फाज़ खोजने में बहुत मुश्किलें होती है ...
मेरे संक्षिप्त उर्दू शब्दकोश को खंघालने और मित्र 'साहिल' द्वारा भाषागत त्रुटियों के निवारण के उपरान्त कुछ छितराए हुए शेर !

अब भी ख़ामोशी से डर लगता है यारों,
कल रात बहुत शोर हुआ आशियाना-ए-दिल में !
वो भी रात भर रोया था और चाँद भी,
कुछ आसूं और कुछ ओस की बुँदे पत्तों पे थी !
यूँ बेरुखी से न देख संगदिल मुझको,
टूटते तारे भी ख्वाहिश को हवा देते हैं ! 
दफ्न कर सकूँ जहाँ उसकी यादों के लम्हे
ऐ रहगुजर कोई ऐसी कब्रगाह का पता  तो दे !
---------------------- सुनील मिश्रा
 

Wednesday, April 13, 2011

अब कोई ख़ास नहीं, कोई आस-पास नहीं

अब कोई ख़ास नहीं,
कोई आस-पास नहीं !

ढूँढती हैं नजरें पलछिन में,
जैसे वक़्त के थपेड़े,
जो निशान दे गए हैं,
मिटाने की कोशिश में,
अब कोई जान नहीं,
कोई अरमान नहीं !

अब भी लगता है कि,
डूबते हुए सितारे की रोशनी,
और नए सुबह की दस्तक,
एक दूजे से बेपरवाह हैं,
जैसे कोई अपना नहीं,
कोई बेगाना नहीं !

दूर दरिया के पास जलता दिया,
आँधियों से जूझता हुआ,
खुद को समेटता हुआ,
चांदनी रात से पूछता हो,
जैसे कोई परवाना नहीं,
कोई दीवाना नहीं !

पगडंडी पे खड़ा वो पथिक,
भूला हुआ है मंजिल,
खुद पे झुंझलाता हुआ,
खुद को बहलाता हुआ,
जैसे कोई बात नहीं,
आएगी अभी रात नहीं !

---------सुनील मिश्रा

Thursday, October 28, 2010

पी.एच.डी. जीवन की करुण कहानी कविता के माध्यम से

उलझे-उलझे बाल हैं,
चाल पे न है काबू !
बहुत पढ़े डॉक्टर बने,
शकल बिमरिहा बाबू !

चप्पल पैरों की शोभा,
फटी पैंट है शान !
कर्ज तले है दब गया,
रोम-रोम इंसान !

जिस दिन ठाना पढ़ने को,
आज अभी भी कोस रहा हूँ !
नियति ने कैसा भरम दिया
आज अभी खोज रहा हूँ !

जीवन के सब मोह गवाए,
स्वावलंब आलम्ब हिलाए !
दिनचर्या को तोड़ दिया हूँ, ,
मै थीसिस पे जोर दिया हूँ !

रात्रि प्रहर में उल्लू के संग,
नित्य शोध मै करता हूँ !
जीवन में निष्कर्षों की,
परिभाषा भी मोड़ दिया हूँ !

दिल को यही तसल्ली है,
देश अर्थ में जीवन है !
आज नहीं तो कल सही,
चिरंजीव जो यौवन है !

--------सुनील मिश्रा

Friday, August 20, 2010

वसुधा

जब से लिया जन्म हे मानव,
वसुधा का दोहन ही किया |
छाती पे तू अन्न उगाया,
पेट से पानी खींच लिया |

इतने से जो मन न भरा,
तो तरह तरह से नाश किया |
जंगल काटे, पर्वत तोड़े,
सागर का मंथन भी किया |

धरती के ही नाम पे तूने,
युद्ध कई लड़ डाले |
एटम बम, मिसाइल कितने,
माँ की छाती पे दागे |

कभी धर्म की ओंट लिया,
तो कभी स्वार्थ का साथी |
तू निर्दयी कभी ना समझा,
वसुधा माँ की भांती |

बाँट दिया टुकड़ो टुकड़ो में,
हर टुकड़े पे राज किया |
जिसको साथ न ले के आया,
उस पे तू अधिकार किया |

वसुधा की ममता तो देखो,
इतने पर भी लाड़ दिया |
मानव का मृत शरीर भी,
उसने अंगीकार किया |

नरता का अभिज्ञान रहे,
तो वसुधा का सम्मान करो |
सीचो इसको प्रेम से मानव,
हर प्राणी का मान धरो |

चाँद तुम्हारी मुट्ठी में हो,
अंतरिक्ष भी घर बन जाए |
पृथ्वी 'माँ' है ध्यान रहे,
सीमाएं कितनी बन जाएँ |

Saturday, August 7, 2010

मुखातिब

मुखातिब होके मुझसे वो यही हर बार कहते हैं ...
तालुक्कात की बात करते हो जज्बात कहा रखते हो !!

समां को जलते रहने की सदा ताकीद देते हो ..
कभी जब आंच आती है तो चेहरा क्यूँ ढकते हो !!

कभी आँखों में झांको और अपना अक्स पहचानों
ये अपनी अजनबीयत आईने में ढूंढते क्यूँ हो !!

अगर मुमकिन है चलना साथ तो आओ मेरे संग तुम
इन अनजान गलियों में भी बेगानों से लगते क्यूँ हो !!

Friday, February 6, 2009

जयघोष

नूतन प्रभात की बेला का
आह्वान किया है जन गण ने
अब मचल रही हर एक तरंग
जयघोष किया है किरणों ने

मानव जीवन की अभिलाषा
पूरी होने को लालायित है
समृद्धि शान्ति और खुशहाली
आगे की नई कहानी है

आगाज किया था पांडवों ने
परिणाम मिला था महाभारत
आगाज करेंगे प्राणी समूह
अंजाम मिलेगा समृद्ध भारत

अब रोक नही सकता अन्धकार
शाश्वत की ओर बढे क़दमों को
अब मिलने को आतुर है मंजिल
कोटिजनो के संघर्षों को

अब छिपा हुआ है कहीं तिमिर
शोषित हो जाने के भय से
अब चमक उठा है प्रबल सूर्य
मानव मानव के चिंतन में

छट गई मेघ व्याकुलता की
आशाओं को उत्कर्ष मिला
भावों के प्रबल प्रवाहों को
उत्साह मिला गंतव्य मिला

अब विकास की आंधी से
लहलहा उठा है मानव मन
खिल उठी उमंगो की बेला
करने को प्रणय भाव विह्वल

जागृत मन की अभिलाषा को
विस्तार सहित आकार मिला
अब बढे हुए क़दमों को तो
मंजिल का भी आभास मिला